|
महासमाधि
है प्रभो, आज प्रातः तूने मुझे यह आभासन दिया हैं कि जब तक तेरा कार्य संपन्न नहीं हो जाता, तब तक तू हमारे साथ रहेगा, केवल एक चेतना के रूप में ही नहीं जो पथप्रदर्शन करती और प्रदीप्त करती हैं बल्कि कार्यरत एक गतिशील ' उपस्थिति' के रूप में भी । तूने अचूक शब्दों में वचन दिया हैं कि तेरा सर्वेश यहां विद्यमान रहेगा और पार्थिव वातावरण को तब तक न छोड़ेगा जब तक पृथ्वी का रूपान्तर नहीं हो जायेगा । वर दे कि हम इस अद्भुत ' उपस्थिति' के योग्य बन सकें, अब सें हमारे अन्दर की प्रत्येक वस्तु तेरे उदात्ता कार्य को पूर्ण करने हेतु अधिकाधिक परिपूर्णता से समर्पित होने के एकमात्र संकल्प पर एकाग्र हो ।
७ दिसम्बर, १९५०
*
श्रीअरविन्द ने अपने शरीर के बारे में जो निर्णय किया उसके लिए बहुत हद तक धरती और मनुष्यों में ग्रहणशीलता का अभाव जिम्मेदार है । लेकिन एक चीज निश्चित है : भौतिक स्तर पर जो कुछ हुआ है उसका असर किसी तरह से भी उनकी शिक्षा के सत्य पर नहीं पड़ता । उन्होंने जो कुछ कहा है वह सब पूरी तरह सत्य है और सत्य ही बना हुआ हैं । समय और घटनाक्रम इसे पर्याप्त रूप में सिद्ध करेंगे ।
८ दिसम्बर १९५० *
तुम्हारे प्रति जो हमारे प्रभु के भौतिक आवरण रहे हो, तुम्हारे प्रति हमारा असीम आभार है । तुमने हमारे लिए इतना कुछ किया, हमारे लिए कर्म किया, संघर्ष किये, कष्ट झेले, आशा की, इतना सहन किया, तुमने हम सबके लिए संकल्प किये, प्रयत्न किये, तैयार किया, हमारे लिए सब कुछ प्राप्त किया, तुम्हारे आगे हम नतमस्तक हैं और यह प्रार्थना करते हैं कि हम एक क्षण के लिए भी कभी तुम्हारे ऋण को न भूलें ।
१ दिसम्बर, १९५०
*
शोक करना श्रीअरविन्द का अपमान हैं, वे हमारे साथ यहां सचेतन और जीवित रूप में विधामान हैं ।
१४ दिसम्बर, १९५०
*
हमें प्रतीतियों सै चकरा नहीं जाना चाहिये । श्रीअरविन्द ने हमें छोड़ा नहीं है । श्रीअरविन्द यहां हैं, शाश्वत काल तक जीवित और विधामान । अब यह हमारे जिम्मे है कि उनके काम को उसके लिए आवश्यक पूरी सच्चाई, व्यग्रता और एकाग्रता के साथ संपत्र करें ।
१५ दिसम्बर,१९५०
*
७ तुम यहां आश्रम में जो पुस्तिका बांट रहे हो उसका अनुवाद सुनकर मुझे बड़ा दुःखद धक्का लगा । मैंने कभी कल्पना नहीं की थी कि हमारे प्रभु के लिए, जिन्होने हमारे लिए पूरी तरह से अपनी बलि. दे दी, तुम्हारे अन्दर समझ का, आदर ओर भक्ति का इस कंदर अभाव होगा । श्रीअरविन्द पंगु नहीं हुए थे; अपना शरीर त्यागने से कुछ घंटे पहले वे अपने पलंग से उठाकर काफी समय तक अपनी आराम कुरसी पर बैठे और उन्होंने अपने इर्द-गिर्द के लोगों से खुलकर बातचीत की । श्रीअरविन्द अपना शरीर छोड़ने के लिए बाधित नहीं थे, उन्होंने ऐसे कारणों से शरीर त्यागने का फैसला किया जो इतने महान् हैं कि मानव बुद्धि की पहुंच से परे हैं ।
और जब तुम समझ नहीं सकते तो करने लायक एक ही चीज होती है : सादर मोन ।
२६ दिसम्बर ,१९५०
*
लोग यह नहीं जानते कि श्रीअरविन्द ने जगत् के लिए कितनी भारी बलि दौ है । लगभग एक वर्ष पहले, जब मैं उनके साथ बातचीत कर रही धी, तो मैंने कहा कि मेरी इच्छा हो रही है कि मैं शरीर छोड़ दूं । उन्होंने बड़े दृढ़ स्वर में कहा : '' नहीं, यह हर्गिज नहीं हो सकता, अगर इस रूपान्तर के लिए जरूरी हुआ, तो शायद मैं चला जाऊं, तुम्हें हमारे अतिमानसिक अवतरण और रूपान्तर के योग को पूरा करना होगा । ''
१९५०
*
हे प्रभो, हम धरती पर तेरे रूपान्तर के काम को पूरा करने के लिए हैं । यह हमारा एकमात्र संकल्प, हमारी एकमात्र धुन है । वर दे कि यह हमारा
इस निशान का अर्थ है कि किसी साधक ने माताजी की कही बात को बाद मे स्मृति से लिख लिया था ओर प्रकाशन के लिए उस पर माताजी की स्वीकृति प्राप्त कर ली थी ।
८ एकमात्र कार्य भी हो, हमारी सभी क्रियाएं हमें इस एकमात्र लक्ष्य की ओर बढ़ने में सहायता दें ।
१ जनवरी १९५१
*
हम 'उनकी ' दिव्य ' उपस्थिति ' की छत्रछाया में खड़े हैं जिन्होने अपने भौतिक जीवन की बलि दे दी ताकि अपने रूपान्तर के काम में अधिक पूर्णता के साथ सहायता कर सकें ।
' वे ' हमेशा हमारे साथ हैं, हमारे सभी कार्यकलापों, सभी विचारों, हमारे सभी भावों और हमारी सभी क्रियाओं से अवगत हैं ।
१८ जनवरी,१९५१
*
जब मैंने उनसे (१८ दिसम्बर,१९५० को) अपने शरीर को पुनरुज्जीवित करने के लिए कहा, तो उन्होंने स्पष्ट उत्तर दिया : ' 'मैंने जान-बूझकर यह शरीर छोड़ा है । मैं इसे वापिस नहीं लूंगा । मैं पुन: अतिमानसिक तरीके से बनाये गये पहले अतिमानसिक शरीर में आविर्भूत होऊंगा । ''
११ अप्रैल १९५२
*
श्रीअरविन्द का अपना शरीर त्यागना परम नि:स्वार्थता का कार्य हे । उन्होंने अपने शरीर में होनेवाली उपलब्धि को इसलिए त्यागा कि सामूहिक उपलब्धि का मुहूर्त जल्दी आ सके । निश्चय ही, अगर धरती अधिक राहणशील होती, तो यह जरूरी न होता ।
१२ अप्रैल,१९५३
९ |